ये शहर है अंजान कहाँ रात गुज़ारूँ,
है जान-न-पहचान कहाँ रात गुज़ारूँ।
दामन में लिए फिरता हूँ मैं दौलत-ए-ग़म को,
हर राह है सुनसान कहाँ रात गुज़ारूँ,
कुटिया तो अलग साया-ए-दीवार नहीं है,
मुश्किल में फंसी है जान कहाँ रात गुज़ारूँ।
इस राहगुज़र पर तो शजर भी नहीं कोई,
और सर पे है तूफ़ान कहाँ रात गुज़ारूँ।
बहरूपिए फिरते हैं हर इक राहगुज़र पर,
कोई नहीं इंसान कहाँ रात गुज़ारूँ।
दर है कोई और न दरीचा ही खुला है,
हर कूचा है वीरान कहाँ रात गुज़ारूँ.!!

 
   
 
 
