तुझे रास नहीं आएगी इतनी ख़ुदपरस्ती,
 ऐ दिल थोड़ा तो लोगों से मिल के चला कर।
शीशी में उतार लेंगे तेरी महक सारी,
 गुलिस्तां में यूँ बेबाक न खिल के चला कर।
नमक की मंडी में उतरने से पहले,
सूफी ज़ख्मों को ज़रा सिल के चला कर।
तुझे नोच खाएंगे इस शहर के मसीहे,
 तेवर अपने कुछ तो बदल के चला कर।
किसके लिए हैं यह तेरी ज़ाफ़रानी गज़लें,
रूख़ बदल अब इनका, न मचल के चला कर!!

 
   
 
 
